देवउठनी-एकादशी

देवउठनी एकादशी

*देवउठनी एकादशी को देवोत्थान एकादशी या प्रबोधिनी एकादशी भी कहा जाता हैं।*

कार्तिक मास की एकादशी तिथि को देव उठनी एकादशी क्यों कहा जाता है?

आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को भगवान विष्णु क्षीर सागर की अनंत शय्या पर गहरी निद्रा में चले जाते हैं।जाने देव सोनी ग्यारस की पूरी कथा ।(Click here)

 इसके बाद कार्तिक मास की एकादशी तिथि को भगवान विष्णु योगनिद्रा से निकलते हैं। इसलिए इसे देव उठनी ग्यारस कहा जाता है।

देव उठनी ग्यारस पर तुलसी विवाह का क्या महत्व है?

Tulsi Vivah - Mantram

सबसे पहले हम जानते है कुछ तुलसी के बारे में –

एक कथा के अनुसार एक बार गणेश जी गंगा के किनारे तपस्या कर रहे थे। तभी वहां तुलसी जी आयीं और उनसे विवाह करने के लिए कहने लगी। गणेश जी ने बड़े ही आदर के साथ उनका प्रस्ताव ठुकरा दिया लेकिन तुलसी को यह उनका अपमान लगा। जिसके पश्चात् क्रोध में आकर उन्होंने गणपति को श्राप दे दिया कि उनके दो-दो विवाह होंगे। तुसली जी के श्राप से गणेश जी को भी क्रोध आ गया और उन्होंने भी तुलसी जी को श्राप दे दिया कि उनका विवाह एक असुर से होगा। गजानन की यह बात सुनकर तुलसी जी उनसे क्षमा याचना करने लगीं। तब गणेश जी ने उनसे कहा कि एक असुर से विवाह होने के पश्चात भी तुम भगवान विष्णु और श्रीकृष्ण को प्रिय रहोगी और इसके आलावा कलयुग में तुम जीवन और मोक्ष देने वाली होगी। किन्तु मेरी पूजा में तुम्हारा कोई स्थान नहीं होगा, तुम्हारा उपयोग मेरी पूजा में वर्जित माना जाएगा। 

(श्री गणेश के इसी श्राप के कारण तुसली जी का विवाह असुर शंखचूड़ से हुआ था।)

तुलसी शालिग्राम विवाह कथा –

शिवमहापुराण के अनुसार पुरातन समय में दैत्यों का राजा दंभ था। वह विष्णुभक्त था। बहुत समय तक जब उसके यहां पुत्र नहीं हुआ तो उसने दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य को गुरु बनाकर उनसे श्रीकृष्ण मंत्र प्राप्त किया और पुष्कर में जाकर घोर तप किया। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उसे पुत्र होने का वरदान दिया।

भगवान विष्णु के वरदान स्वरूप दंभ के यहां पुत्र का जन्म हुआ। (वास्तव में वह श्रीकृष्ण के पार्षदों का अग्रणी सुदामा नामक गोप था, जिसे राधाजी ने असुर योनी में जन्म लेने का श्राप दे दिया था) इसका नाम शंखचूड़ रखा गया। जब शंखचूड़ बड़ा हुआ तो उसने पुष्कर में जाकर ब्रह्माजी को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या की।

शंखचूड़ की तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी प्रकट हुए और वर मांगने के लिए कहा। तब शंखचूड़ ने वरदान मांगा कि मैं देवताओं के लिए अजेय हो जाऊं। ब्रह्माजी ने उसे वरदान दे दिया और कहा कि  तुम बदरीवन जाओ। वहां धर्मध्वज की पुत्री तुलसी तपस्या कर रही है, तुम उसके साथ विवाह कर लो।

ब्रह्माजी के कहने पर शंखचूड़ बदरीवन गया। वहां तपस्या कर रही तुलसी को देखकर वह भी आकर्षित हो गया। तब भगवान ब्रह्मा वहां आए और उन्होंने शंखचूड़ को गांधर्व विधि से तुलसी से विवाह करने के लिए कहा। शंखचूड़ ने ऐसा ही किया। इस प्रकार शंखचूड़ व तुलसी सुख पूर्वक विहार करने लगे। तुलसी बड़ी ही पतिव्रता स्त्री थी, सदा अपने पति की सेवा किया करती थी।

शंखचूड़ बहुत वीर था। उसे वरदान था कि देवता भी उसे हरा नहीं पाएंगे। उसने अपने बल से देवताओं, असुरों, दानवों, राक्षसों, गंधर्वों, नागों, किन्नरों, मनुष्यों तथा त्रिलोकी के सभी प्राणियों पर विजय प्राप्त कर ली। उसके राज्य में सभी सुखी थे। वह सदैव भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहता था।

स्वर्ग के हाथ से निकल जाने पर देवता ब्रह्माजी के पास गए और ब्रह्माजी उन्हें लेकर भगवान विष्णु के पास गए। देवताओं की बात सुनकर भगवान विष्णु ने बोला कि शंखचूड़ की मृत्यु भगवान शिव के त्रिशूल से निर्धारित है। यह जानकर सभी देवता भगवान शिव के पास आए।

देवताओं की बात सुनकर भगवान शिव ने चित्ररथ नामक गण को अपना दूत बनाकर शंखचूड़ के पास भेजा। चित्ररथ ने शंखचूड़ को समझाया कि वह देवताओं को उनका राज्य लौटा दे, लेकिन शंखचूड़ ने कहा कि महादेव के साथ युद्ध किए बिना मैं देवताओं को राज्य नहीं लौटाऊंगा।

भगवान शिव को जब यह बात पता चली तो वे युद्ध के लिए अपनी सेना लेकर निकल पड़े।

शंखचूड़ भी युद्ध के लिए तैयार होकर रणभूमि पर जाने लगा। जब शंखचूड़ युद्ध पर जाने लगे तो तुलसी ने कहा स्वामी आप युद्ध पर जा रहे है आप जब तक युद्ध में रहेगे में पूजा में बैठ कर आपकी जीत के लिये अनुष्ठान करुगी, और जब तक आप वापस नहीं आ जाते, मैं अपना संकल्प

नही छोडूगी। शंखचूड़ तो युद्ध में चले गये, और तुलसी व्रत का संकल्प लेकर पूजा में बैठ गयी, उनके व्रत के प्रभाव और वरदान के कारण शंखचूड़ को देवता हरा नहीं पा रहे थे।देखते ही देखते देवता व दानवों में घमासान युद्ध होने लगा। 

शंखचूड़ और देवताओं का युद्ध सैकड़ों सालों तक चलता रहा। अंत में भगवान शिव ने शंखचूड़ का वध करने के लिए जैसे ही अपना त्रिशूल उठाया, तभी आकाशवाणी हुई कि जब तक शंखचूड़ के हाथ में श्रीहरि का कवच है और इसकी पत्नी का सतीत्व अखंडित है, तब तक इसका वध संभव नहीं होगा।

आकाशवाणी सुनकर भगवान विष्णु वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण कर शंखचूड़ के पास गए और उससे श्रीहरि कवच दान में मांग लिया। शंखचूड़ ने वह कवच बिना किसी संकोच के दान कर दिया।

इसके बाद भगवान विष्णु शंखचूड़ का रूप बनाकर तुलसी के महल में जा पहुचे। तुलसी ने जैसे ही अपने पति शंखचूड़ को देखा, तो वे तुरंत पूजा मे से उठ गई और उनके चरणों को छू लिए, जैसे ही उनका संकल्प टूटा और सतीत्व खंडित हुआ, युद्ध में देवताओ ने शंखचूड़ को मार दिया और उसका सिर काट कर अलग कर दिया, उनका सिर तुलसी के महल में गिरा, जब तुलसी ने देखा कि मेरे पति का सिर तो कटा पडा है तो फिर ये जो मेरे सामने खड़े है ये कौन है? उन्होंने पूँछा – आप कौन हो जिसका स्पर्श मैने किया, तब भगवान अपने रूप में आ गये पर वे कुछ ना बोल सके, तुलसी सारी बात समझ गई, इसके बाद तुलसी ने विष्णुजी को श्राप दिया। उन्होंने कहा कि जिस तरह आपने छल किया और मुझे पति वियोग का कष्ट दिया। ठीक उसी प्रकार आपकी भी पत्नी का छलपूवर्क हरण होगा। आपको भी पत्नी विरह का दु:ख सहन करना पड़ेगा। ( कहा जाता है कि तुलसी के इसी श्राप के चलते श्री विष्णु ने अयोध्या में दशरथ पुत्र श्री राम के रूप में जन्म लिया और बाद में उन्हें सीता वियोग का भी कष्ट सहना पड़ा।)

इसके बाद तुलसी ने कहा कि आपने मेरा सतीत्व भंग किया है इसलिए आप पत्थर के हो जाएंगे।

तब विष्णु जी ने तुलसी जी को बताया कि उन्होंने विष्णु जी को प्राप्त करने के लिए कई वर्षों तक कठोर तपस्या की है इसलिए अब समय आ गया है कि वह अपने इस शरीर को त्याग कर एक दिव्य शरीर धारण करे। भगवान ने तुलसी जी से कहा कि तुम्हारा यह शरीर नदी रूप में बदलकर गंडकी नामक नदी के रूप में प्रसिद्ध होगा। तुम पुष्पों में श्रेष्ठ तुलसी का वृक्ष बन जाओगी और सदा मेरे साथ रहोगी। 

तुम्हारे श्राप को सत्य करने के लिए मैं पाषाण (शालिग्राम) बनकर रहूँगा। गंडकी नदी के तट पर मेरा वास होगा। नदी में रहने वाले करोड़ों कीड़े अपने तीखे दांतों से काट-काटकर उस पाषाण में मेरे चक्र का चिह्न बनाएंगे। मेरा यह शालिग्राम रूप तुलसी जी के साथ ही पूजा जायेगा और मैंबिना तुलसी जी के भोग स्वीकार नहीं करूँगा।

Shaligram Patthar

शालिग्राम पत्थर - Siddhmantram

और जो मनुष्य कार्तिक एकादशी के दिन तुम्हारे साथ मेरा विवाह करेगा, उसकी हर मनोकामना पूरी होगी।

इसके बाद से ही इस शुभ तिथि पर शालिग्राम और तुलसी के विवाह की पंरपरा शुरू हुई।

(कुछ कथा और पुराणों के अनुसार जब तुलसी शंखचूड़ की पत्नी थी तब उनका नाम वृंदा था और वही कुछ कथा और पुराणों में वृंदा के पति का नाम जलंधर बताया गया है।)

एकादशी के दिन फलाहार क्यों करा जाता है?

एक राजा था। उसके राज्य में प्रजा सुखी थी। एकादशी को कोई भी अन्न नहीं बेचता था। सभी फलाहार करते थे। एक बार भगवान ने राजा की परीक्षा लेनी चाही। भगवान ने एक सुंदरी का रूप धारण किया तथा सड़क पर बैठ गए। तभी राजा उधर से निकला और सुंदरी को देख चकित रह गया। उसने पूछा- हे सुंदरी! तुम कौन हो और इस तरह यहां क्यों बैठी हो?

तब सुंदर स्त्री बने भगवान बोले- मैं निराश्रिता हूं। नगर में मेरा कोई जाना-पहचाना नहीं है, किससे सहायता मांगू? राजा उसके रूप पर मोहित हो गया था। वह बोला- तुम मेरे महल में चलकर मेरी रानी बनकर रहो।

सुंदरी बोली- मैं तुम्हारी बात मानूंगी, पर तुम्हें राज्य का अधिकार मुझे सौंपना होगा। राज्य पर मेरा पूर्ण अधिकार होगा। मैं जो भी बनाऊंगी, तुम्हें खाना होगा। राजा उसके रूप पर मोहित था, अतः उसने उसकी सभी शर्तें स्वीकार कर लीं।

अगले दिन एकादशी थी। रानी ने हुक्म दिया कि बाजारों में अन्य दिनों की तरह अन्न बेचा जाए। उसने घर में मांस-मछली आदि पकवाए तथा परोसकर राजा से खाने के लिए कहा।

यह देखकर राजा बोला-रानी! आज एकादशी है। मैं तो केवल फलाहार ही करूंगा।

तब रानी ने शर्त की याद दिलाई और बोली- या तो खाना खाओ, नहीं तो मैं बड़े राजकुमार का सिर काट लूंगी।

राजा ने अपनी स्थिति बड़ी रानी से कही तो बड़ी रानी बोली- महाराज! धर्म न छोड़ें, बड़े राजकुमार का सिर दे दें। पुत्र तो फिर मिल जाएगा, पर धर्म नहीं मिलेगा।

इसी दौरान बड़ा राजकुमार खेलकर आ गया। मां की आंखों में आंसू देखकर वह रोने का कारण पूछने लगा तो मां ने उसे सारी वस्तुस्थिति बता दी। तब वह बोला- मैं सिर देने के लिए तैयार हूं। पिताजी के धर्म की रक्षा होगी, जरूर होगी। राजा दुःखी मन से राजकुमार का सिर देने को तैयार हुआ तो रानी के रूप से भगवान विष्णु ने प्रकट होकर असली बात बताई- राजन! तुम इस कठिन परीक्षा में पास हुए।

भगवान ने प्रसन्न मन से राजा से वर मांगने को कहा तो राजा बोला- आपका दिया सब कुछ है। हमारा उद्धार करें। उसी समय वहां एक विमान उतरा। राजा ने अपना राज्य पुत्र को सौंप दिया और विमान में बैठकर परम धाम को चला गया।

 एकादशी महत्व –

एकादशी के वैज्ञानिक महत्व – एकादशी के दिन सूर्य एवम अन्य गृह अपनी स्थिती में परिवर्तन करते हैं, जिसका मनुष्य की इन्द्रियों पर प्रभाव पड़ता हैं। इन प्रभाव में संतुलन बनाये रखने के लिए व्रत का सहारा लिया जाता हैं। व्रत एवम ध्यान ही मनुष्य में संतुलित रहने का गुण विकसित करते हैं।

इसे पाप विनाशिनी एवम मुक्ति देने वाली एकादशी कहा जाता हैं। पुराणों में लिखा हैं कि इस दिन के आने से पहले तक गंगा स्नान का महत्व होता हैं, इस दिन उपवास रखने का पुण्य कई तीर्थ दर्शन, हजार अश्वमेघ यज्ञ एवम सौ राजसूय यज्ञ के तुल्य माना गया हैं।

इस दिन का महत्व स्वयं ब्रम्हा जी ने नारद मुनि को बताया था –

  1. उन्होंने कहा था इस दिन एकाश्ना करने से एक जन्म, रात्रि भोज से दो जन्म एवम पूर्ण व्रत पालन से साथ जन्मो के पापो का नाश होता हैं।
  2. इस दिन से कई जन्मो का उद्धार होता हैं एवम बड़ी से बड़ी मनोकामना पूरी होती हैं।
  3. इस दिन रतजगा करने से कई पीढियों को मरणोपरांत स्वर्ग मिलता हैं। जागरण का बहुत अधिक महत्व होता है, इससे मनुष्य इन्द्रियों पर विजय पाने योग्य बनता हैं।
  4. इस व्रत की कथा सुनने एवम पढने से 100 गायो के दान के बराबर पुण्य मिलता हैं।
  5. किसी भी व्रत का फल तब ही प्राप्त होता हैं जब वह नियमावली में रहकर विधि विधान के साथ किया जाये।

Note- इस लेख में दी गई जानकारियां और सूचनाएं सामान्य मान्यताओं पर आधारित हैं. हम इनकी पुष्टि नहीं करते हैं. इन पर अमल करने से पहले संबंधित विशेषज्ञ से संपर्क करें.

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