श्री यंत्र मां भगवती त्रिपुर सुंदरी का आवास है। इसका अर्थ है कि यह यंत्र परम मोक्ष का दाता, ऐश्वर्य का स्रोत है, जो मां भगवती की व्यवस्था में स्थित है।
यह श्रीयंत्र ब्रह्माण्ड के सम्पूर्ण उत्पत्ति और विकास की दर्शन को समर्पित है, साथ ही मानव शरीर की पूरी संरचना भी इस यंत्र में समाहित होती है।
श्रीयंत्र का स्वरूप, सरंचना एवं रहस्य (Structure of Shreeyantra)
श्री यंत्र के भीतरी चक्र में वृत्त के केंद्रस्थ बिंदु के चारों और 9 त्रिकोण होते हैं। इनमें से 5 त्रिकोण अर्ध्वमुखी होते हैं, और चार त्रिकोण अधोमुखी होते हैं। उर्ध्वमुखी 5 त्रिकोण देवी की प्रतिष्ठा हैं और उन्हें शिव युवती कहा जाता है। अधोमुखी 4 त्रिकोण शिव की प्रतिष्ठा हैं और उन्हें श्री कण्ठ कहा जाता है।
पांचों शक्ति त्रिकोण ब्रह्माण्ड में उपस्थित पंच महाभूत पंचज्ञानेन्द्रिय, पंचकर्मेन्द्रिय, पंचलोक एवं पंच प्राण के द्योतक हैं। मनुष्य के शरीर में यही 5 त्रिकोणात्मक अष्टक, मांस, मेद तथा अस्थि रूप में स्थित हैं और चारों शिव त्रिकोण ब्रह्माण्ड में चित् बुद्धि अहंकार तथा मन रूप में स्थित है और पिण्ड स्वरूप में मज्जा, शुक्र, प्राण तथा जीव रूप में विद्यमान हैं।
श्रीयंत्र की पूजा और निर्माण या प्रकार | Shree Yantra Pooja and Types
श्रीयंत्र की पूजा करने के 2 तरीको से की जाती है और प्रकार भी । आदि गुरु शंकराचार्य जी मानते थे की श्रीयंत्र का निर्माण सृष्टि क्रम के आधार पर किया जाना चाहिए और इसी प्रकार पूजा भी सृष्टि क्रम के अनुसार की जानी चाहिए। जिसका अर्थ है कि 5 श्रीयन्त्र में ऊध्वर्मुखी त्रिकोण होते हैं जिन्हें शिव त्रिकोण कहते हैं 4 अधोमुखी त्रिकोण होते हैं
दूसरी पद्धति है संहार क्रम जिसके अनुसार श्री यंत्र में 5 शक्ति त्रिकोण, अधोमुखी बनाये जाते हैं और 4 शिव त्रिकोण ऊर्ध्वमुखी । मुख्यतः कौलमत के अनुयायी द्वारा इस क्रम से श्रीयन्त्र की उपासना की जाती थी।
इस यन्त्र में वर्णित त्रिकोण निराकार शिव या रुद्र की 9 मूल प्रकृतियों को दर्शाते हैं जो कि मुख्य रूप से यजुर्वेद में वर्णित हैं। इन 9 त्रिकोणों के समिश्रण से 43 अन्य त्रिकोणों का निर्माण होता है। भीतरी वृत्त के बाहर 8 दल का कमल है। 8 दल कमल के पश्चात् 16 दलों का कमल निर्मित है और इन सबसे बाहर भूपुर है।
आदि गुरु शंकराचार्यजी द्वारा रचित आनंद लहरी में इसका वर्णन निम्न प्रकार से है।
जैसा कि पहले कहा है श्री यंत्र में 9 चक्रों का समायोजन है और इनके विषय में रुदयामल ग्रंथ में इस प्रकार से उल्लेख है
अर्थात राजयंत्र रूपी श्री यंत्र में बिंदु, त्रिकोण, आठ त्रिकोणों का पुनः समूह, 14 त्रिकोणों का समूह, 8 दलों वाला कमल, 16 दलों वाला कमल एवं भूपुर का अद्भुत एवं अद्धितीय समायोजन है। कमलों के भीतर स्थित दो, तीन, चार, पांच और 6 चक्रों के 43 छोटे कोण भी स्थित हैं।
9 चक्रो के नाम
- सर्वानंदमय चक्र (केन्द्र में उपस्थित रक्तबिंदु)
- सर्वसिद्धि प्रद चक्र (पीले रंग का त्रिकोण)
- सर्वरक्षाकारी चक्र ( हरे रंग के 8 त्रिकोण)
- सर्वरोगहर चक्र ( काले रंग के 10 त्रिकोण)
- सर्वार्थसाधक चक्र (लाल रंग के 10 त्रिकोण)
- सर्वसौभाग्यदायक (नीले रंग के 14 त्रिकोण)
- सर्वसंक्षोमण ( गुलाबी रंग के 8 दलों का कमल)
- सर्वाशापरिपूरक (पीले रंग के 16 दलों का कमल)
- त्रैलोक्यमोहन (हरे रंग का बाहरी स्थल)
अतः यह स्पष्ट है कि प्रत्येक चक्र अपना एक विशेष रंग लिये हुये हैं। जब श्री यंत्र का समग्रता से निर्माण किया जाता है तब रंगों का विशेष महत्व होता है। रंग शक्ति की प्रकृति को दर्शाते हैं।
प्रथम चक्र का केंद्र बिंदु माँ भगवती त्रिपुर सुन्दरी है। इस बिंदु का निर्माण ॐ कार रूपी नाद या फिर तीन बिन्दुओं या त्रिशक्ति के संयोग से होता है। प्रथम चक्र में स्थित बिंदु मणिक द्वीप भी कहा जाता है। इसी द्वीप में शिव और शक्ति संयुक्त रूप से निवास करते हैं। माँ भगवती अपनी चार भुजाओं में स्थित अस्त्र-शस्त्र, राग द्वेष, मन तथा पञ्चतन्मात्राओं के बधनों द्वारा निराकार शिव को साकार लीला में प्रयुक्त करती हैं
दूसरा चक्र एक त्रिकोण से बना है। इस त्रिकोण मे तीनों कोण कामरूप पूर्ण गिरी और जालंधर पीठ है। इन तीनों पीठों की अधिष्ठात्री देवी कामेश्वरी, वर्जेश्वरी और भगमालिनी है। तीनों कोणों के बीच में औडयाणपीठ ऊपर वर्णित तीनों देवियां प्रकृति महत एवं अहंकार रूपा है।
तीसरे चक्र में 8 त्रिकोणों का समूह है एवं ये आठ त्रिकोणों की अधिष्ठात्री देवी शक्तियां निम्न हैं। वशिनी, कामेश्वरी, मोहिनी, विमला, अरुणा, जयिनी, शर्वेश्वरी तथा कौलिनी। ये शक्तियां क्रमश: शीत, ऊष्ण, सुख दुख, इच्छा, सत्व, रज, तथा तम की स्वामिनी है। इस चक्र की सिद्धि साधक को गुणों से मुक्ति दिलाती है एवं जीवन में द्वंद की स्थिति का नाश करती है।
चौथे चक्र में 10 त्रिकोणों की शक्तियां इस प्रकार से है। सर्वज्ञा, सर्वशक्ति प्रदाय सर्व ऐश्वर्य प्रदाय, सर्वज्ञानमयी, सर्वव्याधिनाशिनी सर्वधारा, सर्वपापहारा, सर्वानंदमयी, सर्वरक्षा तथा सर्वेप्सिताफलप्रदा। यह शक्तियां ऊपर वर्णित शक्तियां क्रमश: रेचक, पाचक, शोषक, दाहक, प्लावक, क्षारक, उद्धारक, शोभक, जम्भक तथा मोहक बहिकलाओं की स्वामिनी है। चौथे चक्र की उपासना साधक को जीवन में समग्रता प्राप्त होती हैं। उसे जो कुछ भी प्राप्त होता है वह उसकी आशा से कई गुना ज्यादा होता है
पांचवें चक्र में स्थित 10 देवियों के नाम इस प्रकार से हैं सर्वसिद्धिपदा, सर्वसम्पत्प्रदा, सर्वप्रियङ्करी, सर्वमंगलकारिणी, सर्वकामप्रदा सर्वदुः खविमोचनी, सर्वमृत्युप्रशगनी, सर्वविघ्ननिवारिणी, सर्वाङ्गसुन्दरी तथा सर्वसौभाग्यदायिनी है। पांचवे चक्र में वर्णित दसों देविया प्राणों को जल प्रदान करती है इनके द्वारा प्राप्त फल प्राणों को बलशाली करते हैं।
छठवें चक्र में 14 त्रिकोण हमारे शरीर में 14 मुख्य नाड़ियों के द्योतक हैं। वेद एक बात साफ तरीके से कहते हैं कि जो कुछ ब्रह्माण्ड में है वही शरीर में है। फर्क सिर्फ लघुता और विशालता का है। इन 14 नाडियों के नाम नीचे वर्णित हैं
सातवें चक्र में आठ कमल दल हैं एवं प्रत्येक दल अलग-अलग शक्तियों का ग्रह स्थान है। वचन, आदान, गमन, निसर्ग, आनंद, दान, उपादान तथा उपेक्षा की बुद्धियों के स्थानापन हैं। बुद्धि का स्थान हमारे शरीर में सातवें चक्र में आता है। इससे पहले के चक्र में बुद्धि की उपयोगिता शून्य हैं। वे शुद्ध शक्ति का प्रतीक है। बुद्धि का उद्भव अंत में ही उचित होता है।
आठवां चक्र जिसका उल्लेख इस प्रकार है आठवे चक्र में मौजूद 16 दलों का संबंध मन, बुद्धि, अहंकार, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, चित्त, धैर्य, स्मृति, नाम, वार्धक्य, सूक्ष्म शरीर जीवन तथा स्थूल शरीर से है और इनकी स्वामिनी देवियाँ इस प्रकार से हैं कामाकर्षिणी, बुद्धयाकर्षिणी, अहङ्कारकर्षिणी, शब्दाकर्षिणी, स्पर्शाकर्षिणी, रूपाकर्षिणी, रसाकर्षिणी, गन्ध कर्षिणी, चित्ताकर्षिणी, धैर्याकर्षिणी, स्मृत्याकर्षिणी, नामाकर्षिणी, बीजाकर्षिणी, आत्माकर्षिणी, अमृताकर्षिणी तथा शरीराकर्षिणी हैं।
नवां चक्र हमारे अनुसार से पशुतुल्य शक्ति का प्रतीक है। अधिकांशतः सभी पशुओं में यह चक्र विकसित होता है एवं समस्त जीवन इस चक्र के इर्द-गिर्द भी घूमता है।
यन्त्र हमारे शरीर के समान जीवित, चैतन्य एवं जाग्रत संरचनायें हैं। इसे आप अच्छी तरह से मन में बिठा लें जिस प्रकार शरीर अस्थि, मांस, नाड़ियाँ, गथ्रियां, रक्त ज्ञान, बुद्धि, प्राण, इत्यादि इत्यादि ठीक उसी प्रकार यंत्र की नाड़ी युक्त होते हैं। बिना नाड़ियों के शक्ति प्रवाह संभव नहीं है। हर नाडी अपना महत्व रखती है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार हमारे शरीर में उपस्थित प्रत्येक तंत्रिका तंत्र अपना महत्व रखती है। जिस तंत्रिका तंत्र में से प्रकाश को निकलना होगा उसमें से ध्वनि नहीं निकल सकती एवं जिस तंत्रिका तंत्र का कार्य मूत्र निष्कासन होगा उसमें से रक्त नहीं निकल सकता। जो तंत्रिका तंत्र ज्ञान को ग्रहण करते हैं वे दर्द का अनुभव नहीं कर सकते।