|मुनिरुवाच||
ध्यायेत् सिंहगतं विनायकममुंदिग्बाहुमाधे युगे
त्रेतायां तु मयूरवाहनममुं षडवाहुकं सिद्धिदम्
द्वापरके तु गजाननं युगभुजं रक्तांग रागं विभुं
तुर्ये तु द्विभुजं सितांगरुचिरं सर्वार्थदं सर्वदा
विनायकः शिखां पातु परमात्मा परात्परः
अति सुन्दरकायस्तु मस्तकं सुमहोत्कटः
ललाटं कश्यपः पातु भ्र युगं तु महोदरः
नयने भाल चन्द्रस्तु गजास्यस्त्वोष्ठपल्लवौ
जिह्वां पातु गणाक्रीडश्चिबुकं गिरिजासुतः
वाचं विनायकः पातु दंतान् रक्षतु दुमुर्खः
श्रवणौ पाशपाणिस्तु नासिकों चिंतितार्थदः
गणेशस्तु मुखं कंठं पातु देवो गणञ्जयः
स्कन्धौ पातु गजस्कन्धः स्तनौ विघ्नविनाशनः
हृदयं गणनाथस्तु हेरंबो जठरं महान्
धराधरः पातु पाश्र्वों पृष्ठं विघ्नहरः शुभः
लिंगं गुह्यं सदा पातु वक्रतुंडो महाबलः
गणक्रीडो जानु जंघे उरु मंगलमूर्तिमान्
एकदन्तो महाबुद्धिः पादौ गुल्फौ सदावतु
क्षिप्रप्रसादनो बाहू पाणी आशापरकः
अंगुलीश्च नखान्पातु पद्महस्तोरिनाशनः
सर्वाग्ङाणि मयूरेशो विश्वव्यापी सदावतु
अनुक्तमपि यत्स्थानं धूम्रकेतुः सदवातः
आमोदक्तग्रतः पातु प्रमोदः पृष्ठतोऽवतु
प्राच्यां रक्षतु बुद्धीश आग्नेयां सिद्धिदायकः
दक्षिणस्यामुमापुत्रो नैऋत्यां तु गणेश्वरः
प्रतीच्यां विघ्नहर्ताऽव्याद्वायव्यां गजकर्णकः
कौंबेर्या निधिपः पायादीशान्यामीशनन्दनः
दिवोऽव्यादेकदन्तस्तु रात्रौ संध्यासु विघ्नहृत्
राक्षसासुर वेताल ग्रह भूत पिशाचतः
पाशांकुशधरः पातु रजः सत्वतमः स्मृतिः
ज्ञानं धर्म च लक्ष्मीं च लज्जां कीर्ति तथा कुलम्
वपुर्धनं च धान्यं च गृह दारान्सुतान्सखीन्
सर्वायुधधरः क्षेत्रं मयूरेशोऽवतात्सदा
कपिलोऽजाविकं पातु गजाश्वान् विकाटोवतु
भूर्जपत्रे लिखीत्वेदं यः कंठे धारयेत्सुधीः
न भयं जायते तस्य यक्ष रक्षः पिशाचतः
त्रिसन्ध्यं जपते यस्तु वज्रसार तनुर्भवेत्
यात्रा काले पठेद्यस्तु निर्विध्नेन फलं लभेत्
युद्धकाले पठेद्यस्तु विजयं चाप्नुयाद धुवम्
मारणोच्चाटनाकर्ष स्तंभ मोहन कर्मणि
सप्तवारं जपेदेतद्दिनानामेक विशंतिम्
तत्तत्फल मवाप्नोति साधको नात्र संशयः
एकविंशतिवारं च पठेत्तावद्दिनानि यः
कारागृह गतं सद्यो राज्ञवध्यं च मोचयेत्
राज दर्शन वेलाया पठेदेत त्रिवारतः
स राजानं वशं नीत्वा प्रकृतिञ्च सभां जयेत्
इदं गणेश कवचं कश्यपेनसमिरितम्
मुद्गलाय च तेनाथ माण्डव्याय महर्षये
मह्यं स प्राह कृपया कवचं सर्वसिद्धिदम्
न देयं भक्ति हीनाय देयं श्रद्धावते शुभम्
अनोनास्य कृता रक्षा न बाधाऽस्य भवेत्क्वचित्
राक्षसा सुरवेताल दैत्य दानव संभवा
इस कवच को भोजपत्र पर लिखकर जो बुद्धिमान साधक अपने कंठ पर धारण करता है, उसको यक्ष, राक्षस तथा पिशाच आदि का कभी भय नहीं होगा तथा इस कवच को जो कोई साधक तीनों संध्याओं में पढ़ता है, उसका शरीर वज्रवत कठोर हो जाता है| जो साधक यात्रा काल में इस कवच को पढ़ें तो सभी कार्य निर्विघ्न सफल हो जाते हैं|
युद्ध काल में इस कवच का पाठ करने से विजय की प्राप्ति होती है|
इस कवच का 7 बार 21 दिन तक जाप करने से मारण, उच्चाटन, आकर्षण, स्तंभन, मोहन आदि सिद्धियों का फल साधक को प्राप्त होता है|
जो कोई व्यक्ति जेल में इस कवच को 21 दिनों में हर रोज 21 बार पढ़ता है, वह जेल के बंधन से छूट जाता है|
यदि कोई साधक राजा के दर्शन के समय इस कवच को तीन बार पढ़ें तो राजा और सभा सभी वश में हो जाते हैं|
यह गणेश कवच कश्यप ने मुद्गल को बताया था मुद्गल ने महर्षि माण्डव्य को बताया था| कृपा वश मैंने सर्व सिद्धि देने वाले कवच को बताया है| यह कवच पापी को नहीं देना चाहिए| श्रद्धावान को ही बतायें|
इस कवच के साधक से राक्षस, असुर, बेताल, दैत्य, दानव से उत्पन्न सभी प्रकार की बाधा भाग जाती है|